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MAY PEACE BE UPON YOU

12/04/2010

नेता की दुआ

“लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी”

जिंदगी नज़रे सियासत हो खुदा या मेरी


जेब भर जाए मेरी, जनता की ख़ाली हो जाए

हर कोई मेरी इनायत का सवाली हो जाए


हो मेरे दम से यूं ही मेरे वतन की दुर्गत

जिस तरह होती है “हामिद” से सुखन की दुर्गत


हो मेरा काम करप्शन की हिमायत करना

मूज्रिमों और लुटेरों कि हिफाज़त करना


मेरे अल्लाह, तू मुन्सिफ न कभी मुझ को बना

चैन व आराम से, इस कौम को, अब तू ही बचा

10/02/2010

नाम मिट्टी में मिला दिया

बंता: आप मिट्टी क्यों खोद रहे हो?
संता: मेरे दादाजी ने कहा है कि मैंने उनका नाम मिट्टी में मिला दिया है, बस वही ढूंढ़ रहा हूँ!

Meri Aankh Men Kya Hai?

Boy-: "Dear, look into my eyes,
what do you see?

Tell me quickly!"


Girl: "TRUE LOVE"



Boy: "oye!True love wali,
kachara gaya hai, jaldi phunk mar"

4/14/2010

पानी से डर

Sardar : Yar meri biwi pani se bohat darti hai.
Friend : Acha wo kaise?

Sardar : Yar kal mein ghar gaya to wo bathtube
mai bhi security guard k sath bethi thi.!!

3/09/2010

Make My Hair Like You

A bald man took a seat in a beauty shop.
`How can I help you?` asked the stylist.
`Listen lady, I`m a rich man but I haven`t been able to solve my balding problem,` the guy explained, `I went for a hair transplant but I couldn`t stand the pain. If you can make my hair look like yours without causing me any discomfort, I`ll pay you Rs. 1,00,000.`
`No problem,` said the stylist, and she quickly shaved her head.

wife and husband

There was once a wife so jealous that when her husband came home one night and she couldn't find hairs on his jackets she yelled at him, "Great, so now you're cheating on me with a bald woman!"

The next night, when she didn't smell any perfume, she yelled again by saying, "She's not only bald, but she's too cheap to buy any perfume!"

2/01/2010

बलि-बलि जाऊँ

भारत पै सैयाँ मैं बलि-बलि जाऊँ
बलि-बलि जाऊँ हियरा लगाऊँ
हरवा बनाऊँ घरवा सजाऊँ
मेरे जियरवा का, तन का, जिगरवा का
मन का, मँदिरवा का प्यारा बसैया
मैं बलि-बलि जाऊँ
भारत पै सैयाँ मैं बलि-बलि जाऊँ

भोली-भोली बतियाँ, साँवली सुरतिया
काली-काली ज़ुल्फ़ोंवाली मोहनी मुरतिया
मेरे नगरवा का, मेरे डगरवा का
मेरे अँगनवा का, क्वारा कन्हैया
मैं बलि-बलि जाऊँ
भारत पै सैयाँ मैं बलि-बलि जाऊँ


रचनाकार: श्रीधर पाठक

1/13/2010

पगली - गोद भर गई है जिसकी पर मांग अभी तक खाली है

ऊपर वाले तेरी दुनिया कितनी अजब निराली है
कोई समेट नहीं पाता है किसी का दामन खाली है
एक कहानी तुम्हें सुनाऊँ एक किस्मत की हेठी का
न ये किस्सा धन दौलत का न ये किस्सा रोटी का
साधारण से घर में जन्मी लाड़ प्यार में पली बढ़ी थी
अभी-अभी दहलीज पे आ के यौवन की वो खड़ी हुई थी
वो कालेज में पढ़ने जाती थी कुछ-कुछ सकुचाई सी
कुछ इठलाती कुछ बल खाती और कुछ-कुछ शरमाई सी
प्रेम जाल में फँस के एक दिन वो लड़की पामाल हो गई
लूट लिया सब कुछ प्रेमी ने आखिर में कंगाल हो गई
पहले प्रेमी ने ठुकराया फिर घर वाले भी रूठ गए
वो लड़की पागल-सी हो गई सारे रिश्ते टूट गए

अभी-अभी वो पागल लड़की नए शहर में आई है
उसका साथी कोई नहीं है बस केवल परछाई है
उलझ- उलझे बाल हैं उसके सूरत अजब निराली-सी
पर दिखने में लगती है बिलकुल भोली-भाली-सी
झाडू लिए हाथ में अपने सड़कें रोज बुहारा करती
हर आने जाने वाले को हँसते हुए निहारा करती
कभी ज़ोर से रोने लगती कभी गीत वो गाती है
कभी ज़ोर से हँसने लगती और कभी चिल्लाती है
कपड़े फटे हुए हैं उसके जिनसे यौवन झाँक रहा है
केवल एक साड़ी का टुकड़ा खुले बदन को ढाँक रहा है

भूख की मारी वो बेचारी एक होटल पर खड़ी हुई है
आखिर कोई तो कुछ देगा इसी बात पे अड़ी हुई है
गली-मोहल्ले में वो भटकी चौखट-चौखट पर चिल्लाई
लेकिन उसके मन की पीड़ा कहीं किसी को रास न आई
उसको रोटी नहीं मिली है कूड़ेदान में खोज रही है
कैसे उसकी भूख मिटेगी मेरी कलम भी सोच रही है
दिल कहता है कल पूछूंगा किस माँ-बाप की बेटी है
जाने कब से सोई नहीं है जाने कब से भूखी है
ज़ुर्म बताओ पहले उसका जिसकी सज़ा वो झेल रही है
गर्मी-सर्दी और बारिश में तूफानों से खेल रही है

शहर के बाहर पेड़ के नीचे उसका रैन बसेरा है
वही रात कटती है उसकी होता वही सवेरा है
रात गए उसकी चीखों ने सन्नाटे को तोड़ा है
जाने कब तक कुछ गुंडों ने उसका ज़िस्म निचोड़ा है
पुलिस तलाश रही है उनको जिनने ये कुकर्म किया है
आज चिकित्सालय में उसने एक बच्चे को जन्म दिया है
कहते हैं तू कण-कण में है तुझको तो सब कुछ दिखता है
हे ईश्वर क्या तू नारी की ऐसी भी क़िस्मत लिखता है
उस पगली की क़िस्मत तूने ये कैसी लिख डाली है
गोद भर गई है उसकी पर मांग अभी तक खाली है

रचनाकार: जगदीश तपिश